Wednesday, February 16, 2011

मानवाधिकार

भारत में मानवाधिकारों पर अकसर बहस चलती है. ह्यूमैन राइट्स वॉच और ऐमनेस्टी इंटरनेशनल समय-समय पर रिपोर्टें जारी कर मानवाधिकारों के हनन के मामले प्रकाश में लाते हैं.
कहीं मानवाधिकारों का पूरी तरह पालन हो रहा हो, ऐसी रिपोर्ट तो मेरी नज़र में कभी नहीं आई. ख़ैर, वह अलग बात है...
दस दिसंबर, 1950. अब से साठ साल पहले का वह दिन जब संयुक्त राष्ट्र का अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणापत्र अमल में आया.
इसके अनुसार हर मानव बिना रंगभेद, जातिभेद, राष्ट्रीयता भेद के बराबर है और उसके बराबरी के अधिकार हैं.
इसीको आधार बना कर मानवाधिकार कार्यकर्ता जेलों में बंद उन क़ैदियों के मानवाधिकारों की बात करते हैं जो अपने किए, और कई बार कुछ किए, की सज़ा भुगत रहे हैं.
मैं कुछ समय पहले एक रेडियो सिरीज़ के संबंध में मध्यप्रदेश की एक जेल के बंदियों से मिल. वहाँ बंद विचाराधीन क़ैदियों की तादाद इतनी है कि बंदी चार-चार घंटे की शिफ़्ट में सोते हैं.
किसी को गहरी नींद से जगा कर खड़े होने पर बाध्य करना कितना पीड़ादायक है यह कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है.
यह निश्चित तौर पर मानवाधिकारों का हनन है.
मुक़दमे की सुनवाई या फ़ैसला होने से पहले किसी को दोषी मान कर उसके साथ दुर्व्यवहार या तथाकथित थर्ड डिग्री ट्रीटमेंट निश्चित तौर पर मानवाधिकारों का हनन है.
लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ता जब सैकड़ों निर्दोषों को गोलियों से भून देने वाले या बम से उड़ा देने वाले चरमपंथियों, या बलात्कारियों या फिर निर्मम हत्या के दोषियों के मानवाधिकारों की दुहाई देते हैं तो कुछ लोग उसे तर्कसंगत नहीं मानते.
क़ानून की नज़र में सब बराबर हैं. यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमैनराइट्स भी सब पर बराबरी से लागू होता है.
लेकिन मानवाधिकार के नाम पर सुविधाओं की मांग, जघन्य अपराध के दोषियों की हिमायत कितनी न्यायोचित है यह एक सोचने वाली बात है.
शायद संयुक्त राष्ट्र को अब साठ साल बाद मानवाधिकार घोषणापत्र पर फिर एक नज़र डालने की ज़रूरत है क्योंकि मानवाधिकार मानवों के होते हैं...पर कुछ लोग अमानव भी बन जाते हैं...

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